200 साल पुराने मुद्दे पर सेकी कई राजनितिक रोटी के चलते हुआ भीमा-कोरेगांव युद्ध

बीते दो दिनों से भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई को 200 साल पुराने एक मुद्दे पर भड़की हिंसा ने ब्रेक लगा दिया है। इस हिंसा की आग महाराष्ट्र के पुणे शहर से तब निकली जब दलितों और मराठा संगठन के कुछ लोगों के बीच सोमवार को हुई हलकी झड़प ने एक बड़ी हिंसा का रूप ले लिया। ये हिंसा मंगलवार तक पुणे से आगे मुंबई तक फ़ैल गई। 


पुणे से निकली इस आग ने मुंबई को बहुत बुरे तरीके से प्रभावित किया, हड़पसर और फुरसुंगी में जहाँ बसों पर पथराव और तोड़ फोड़ किये गए वहीं कई अलग अलग जगहों पर आगजनी भी देखने को मिली। धीरे धीरे मामला बढ़ता चला गया और आगजनी का मामला कई जिलों में फ़ैल गया। प्रशासन ने मामले को बढ़ता देख बुधवार को एहतिहातन धारा 144 लगा दिया।

क्या है मामला?

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बहरहाल ये सारा मामला तब तूल पकड़ा जब पुणे जिले में 200 साल पुराने ऐतिहासिक भीमा-कोरेगांव युद्ध की याद में दलित वर्ग के लोग समारोह का आयोजन कर रहे थे। कहा जा रहा है कि इस समारोह का कुछ मराठा संगठनों ने विरोध किया और इसी विरोध के दौरान दोनों वर्गों के बीच झड़प हुई जिसने 2 दिन में व्यापक रूप ले लिया।

भीमा-कोरेगांव युद्ध का इतिहास

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आज से 200 साल पहले सन 1818 की बात है, तब के मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय 28 हज़ार मराठा सैनिकों की अगुआई करते हुए अंग्रेजों पर हमला करने पुणे जा रहे थे, तभी उन्हें रास्ते में करीब 800 सैनिकों की एक पल्टन मिली जो पुणे में अंग्रेजी सैनिकों का साथ देने वाले थे। ये सब जान कर पेशवा बाजीराव ने 2000 सैनिक की अपनी एक टुकड़ी भेज कर इन पर हमला करवा दिया। 

अगंरेजों की 800 सैनिकों की पल्टन अपने कप्तान फ्रांसिस स्टॉन्टन के नेतृत्व में 12 घंटे तक लड़ती रही और अंततः अंग्रेज जनरल जोसेफ स्मिथ के नेतृत्व में एक बड़ी अंग्रेजी सेना के आने की संभावना के कारण मराठा सैन्यदल रणक्षेत्र से पीछे हट गए। 

अंग्रेजो की फूट डालो और राज करो की रणनीति का ये एक और उदाहरण था। भारतीय मूल के ब्रिटिश सैनिकों में मुख्य रूप से बॉम्बे नेटिव इन्फैंट्री में आने वाले महार रेजिमेंट के सैनिक शामिल थे, और इसलिए महार जाति के लोग इस लड़ाई को अपने इतिहास का एक वीरतापूर्ण क्षण मानते हैं।

जेम्स ग्रांट डफ़ की मराठों पर लिखी गई एक किताब 'ए हिस्टरी ऑफ़ द मराठाज़' में इस लड़ाई का जिक्र करते हुए लिखा गया है कि भीमा नदी के किनारे पर हुई इस लड़ाई में दलित महार जाती के लोगों ने मैराथन के 28 हजार सैनिकों को रोक दिया, अंग्रेजों के तत्कालीन आंकड़ों के अनुसार इस लड़ाई में पेशवा के करीब 500 से 600 सैनिकों की मौत हो गई थी। 

ऐतिहासिक तथ्य चाहे जो भी हों लेकिन अंग्रेजों के लिए ये लड़ाई तीसरे मराठा-अंग्रेज युद्ध के आखिरी मोर्चे के नाम से जानी जाती है, जिसने पेशवाओं के तब तक कमजोर हो चुके साम्राज्य का आखिरकार अंत कर दिया। इसी लड़ाई के परिणाम ने पश्चिम भारत में अंग्रेजों के शासन की एक तरह से बुनियाद रखी थी।

कहीं इस मुद्दे के पीछे कोई षड्यंत्र तो नहीं

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पिछले कुछ सालों से एक पैटर्न सा चल निकला है, जिसमे हर कुछ दिन पर किसी न किसी राज्य में जातिय हिंसा भड़कती है। गुजरात में 2015 में जातीय हिंसा हुई, हरियाणा में 2016 में, उत्तरप्रदेश में 2017 में तो अब 2018 के आरम्भ में महाराष्ट्र जातिय हिंसा की आग में जल रहा है और हर जातीय हिंसा पर राजनितिक पार्टियां अपनी रोटियां सेकती हैं।

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