चुनावों में नोटा का बढ़ता ग्राफ क्या सन्देश दे रहा है

पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयुसीएल) के रिट याचिका के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय चुनाव आयोग को भारतीय चुनावों में नोटा के विकल्प को लाने का आदेश दिया था। इसी आदेश पर चुनाव आयोग ने आज से 4 साल पहले 2013 के विधानसभा चुनावों में पहली बार नोटा विकल्प को ईवीएम और मतपत्रों में जोड़ा, जिससे आम नागरिकों को किसी भी उम्मीदवार के पसंद ना आने पर भी चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने का मार्ग प्रशस्त हो पाया।

2013 से 2017 के अंत तक एक लोकसभा चुनाव और पांच राउंड विधानसभा चुनाव हो गए हैं। हर चुनाव में नोटा विकल्प ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। आंकड़े बताते हैं कि नोटा के आंकड़े धीरे धीरे पिछले सालों में बढे हैं। 


पिछले दिनों हुए गुजरात विधानसभा के चुनावों में नोटा को करीब 2% मतदाताओं ने अपनी पहली पसंद बनाया। वहीं गुजरात के साथ ही हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में ये आंकड़े थोड़े कम रहे और वहां नोटा को 0.9% वोट पड़े। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार गुजरात में 521321 मतदाताओं ने किसी पार्टी के उम्मीदवार को ना चुनते हुए नोटा का चुनाव किया। 

गुजरात चुनाव परिणामों पर नज़र डाले तो नोटा वोटों का यह आंकड़ा एक हद तक निर्णायक भी हो सकता था। अगर ये नोटा के 2% वोट कॉंग्रेस और उनके सहयोगियों के वोटों में जुड़ जाते तो गुजरात विधानसभा का नजारा बदला बदला भी नज़र आ सकता था। वहीं अगर यह वोट पक्ष में पड़ते तो भाजपा के जीत का आंकड़ा ओर भी चमकदार हो सकता था।

आइये गुजरात चुनावों में हो सकने वाले कुछ संभावित परिदृश्यों पर नज़र डालते हैं।

ज्यादातर नोटा वोटर वो युवा हो सकते है जिन्होंने गुजरात में भाजपा के अलावा कोई और सरकार अभी तक देखी ही ना हो, चुकी गुजरात में पिछले 23 साल से भाजपा की सरकार है तो युवाओं को किसी और सरकार को देखने का मौका ही नहीं मिला। 

युवा पाटीदार वोटर भी NOTA के बढ़ते ग्राफ के कारण हो सकते हैं। दो साल पहले हुए पाटीदार आंदोलन को भाजपा सरकार द्वारा तबज्जो ना दिया जाना भी इसकी एक वजह हो सकता है। 

अखबार ‘मुंबई मिरर’ के आंकड़ों के अनुसार इस बार करीब 10 लाख नए मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग किया। इतनी बड़ी संख्या को अनदेखा करना किसी भी पार्टी के लिए एक बड़ी भूल की तरह ही मानी जायेगी। ये संख्या बहुत बड़ा परिवर्तन ला सकती थी। 

भाजपा ने इस बार चुनाव प्रचार पर बहुत ध्यान दिया, खुद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने आगे रहकर मोर्चा संभाला पर युवा वोटरों को जोड़ने के लिए अभी भी काम किये जाने बाकी है। इस चुनाव में कॉंग्रेस की सीटों का बढ़ना इसलिए नहीं हुआ की उन्हें वोट ज्यादा पड़े बल्कि इसलिए क्योंकि नोटा के तरफ ज्यादा वोट चले गए।

बहरहाल वर्तमान परिदृश्य में चुनावों पर नोटा ज्यादा फर्क तो नहीं डाल सकता, क्योंकि वर्तमान में नोटा का मतलब अस्वीकृति नहीं है। अगर किसी चुनाव में कुल वोटो की संख्या 1000 है और 999 वोट नोटा को पड़े तो बाकी बचा एक वोट जिस उम्मीदवार को मिलेगा वो विजेता बन जायेगा। इससे ये तो साफ़ है कि नोटा कभी भी खुद विजेता नहीं बन सकता पर ये चुनावी परिणामों में अंतर तो ला हीं सकता है।

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